करियरगाइडेंस4यू.कॉम - करियर आपके लिए-सही दिशा, खुशहाल जिंदगी

करियर प्लसबी हैप्पीमोटिवेशनमोटिवेशनल कोटयह भी जानेंसक्सेस स्टोरीस्टोरी4यूस्पेशल एजुकेटर

अरुणिमा को लुटेरों ने ट्रेन से फेंका, 23 की उम्र में पैर खोया, 25 में एवरेस्ट कर लिया फतह

arunimasinha2015
arunimasinha2015
  • -दर्दनाक हादसे से उबरकर अपनी कमजोरी को ही सबसे बड़ी ताकत बनाकर कायम किया इतिहास

मंजिल उन्हीं को मिलती है जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती हैं…ये पंक्तियां सिर्फ किताबों तक ही सीमित नहीं हैं। आज हम आपको एक ऐसी महिला-अरुणिमा सिन्हा के बारे में बताने जा रहे हैं जो एक हादसे में पैर खो चुकीं हैं। लोगों ने उन्हें बिल्कुल लाचार और बेचारी समझा, लेकिन उन्होंने अपने विश्वास को डगमगाने नहीं दिया और न केवल अपने एक कृत्रिम पैर के साथ माउंट एवरेस्ट फतह कर इतिहास रचा दिया, बल्कि दुनिया के सभी महाद्वीपों की सबसे ऊंची पर्वत चोटियों को भी जीत लिया।

ज्यादातर लोग एक बार असफल होने पर ही अपनी काबिलियत पर शक करने लगते हैं और एक बार गिरने के बाद दोबारा उठने की कोशिश ही नहीं करते। अरुणिमा सिन्हा ऐसे लोगों के लिए लिए प्रेरणा पुंज हैं।

उत्तर प्रदेश में लखनऊ के पास अंबेडकर नगर में शाहजादपुर इलाके का एक मोहल्ला है-पंडाटोला। अरूणिमा सिन्हा का जन्म 10 जून 1988 को यहीं हुआ था। उनके पिता भारतीय सेना में इंजीनियर थे। महज चार साल की उम्र में ही अरुणिमा के पिता का निधन हो गया था। एक बड़ी बहन और छोटे भाई के साथ अरुणिमा सहित तीन बच्चों वाले परिवार की जिम्मेदारी मां पर आ गई थी। अरुणिमा की मां अंबडेकर नगर में स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करती थीं। लेकिन सैलरी इतनी नहीं थी कि ठीक से गुजारा हो सके। बिना पिता के परिवार को माली हालत से जूझता देख कभी-कभी अरुणिमा घबरा जाया करती थी। समय गुजरता गया, समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री ली। अरुणिमा ने स्कूल में फुटबॉल खेला, बाद में राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबॉल में कॉलेज का प्रतिनिधित्व किया। हॉकी भी खेली। घर के आर्थिक हालात अच्छे नहीं थे इसलिए अरुणिमा पैरामिलिट्री फोर्स-भारतीय सुरक्षा बल में जाना चाहती थीं। बहरहाल, 24 साल की अरुणिमा की जिन्दगी में सब कुछ किसी सामान्य लड़की की तरह चल रहा था, लेकिन तभी उनके साथ कुछ ऐसा घटित हुआ जिसके चलते उनकी जिंदगी पूरी तरह बदल गई।

हादसा जिसने बदल दी जिन्दगी

real life heroi23155

real life heroi अरुणिमा

हुआ यूं कि 2011 में उन्हें सीआईएफ का कॉल लेटर मिला, अरुणिमा का सपना साकार होने जा रहा था। पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे लेकिन कॉल लेटर में जन्मतिथि गलत दर्ज थी। तय हुआ कि दिल्ली जाकर इसको ठीक करवाया जाए। इसलिए 11 अप्रैल 2011 की रात वह पद्मावती एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली जा रही थी। करीब 1 बजे कुछ शातिर बदमाश ट्रैन के डिब्बों में घुस आए और अकेला देखकर अरुणिमा के गले की चेन छीनने का प्रयास करने लगे। विरोध किया तो हाथापाई पर उतारू हो गए। कंपार्टमेंट में कई लोग बैठे थे, लेकिन किसी ने मदद नहीं की। चेन छीनने में नाकाम बदमाशों ने उसको बरेली के धनेती स्टेशन के पास चलती ट्रैन से बाहर फेंक दिया। नीचे गिरकर वह संभलती, उससे पहले ही वहां से गुजरती दूसरी ट्रैन की चपेट में आकर उसका बयां पैर कट गया। अरुणिमा सात घंटे ट्रैक पर पड़ी रहीं। इस बीच 49 ट्रेनें उसके ऊपर से गुजर गईं पर किसी का ध्यान नहीं गया। आंखों के सामने चूहे उनके पैर के कटे हिस्से का मांस कुतर रहे। वह पूरी रात दर्द से चीखती-चिल्लाती रही। शरीर बेजान सा हो गया था। जीवन की आस खो चुकी थी लेकिन उसका दिमाग कह रहा था कि अभी जीना है।

चार महीने जिंदगी और मौत से लड़ती रही

किसी तरह सुबह का उजाला हुआ। कुछ स्थानीय लड़के उसे नजदीकी अस्पताल ले गए। पैर के अलावा उनकी स्पाइनल कॉर्ड में भी दो फ्रैक्चर थे। दूसरी ओर इस बीच कुछ मीडिया रिपोर्ट में आया- अरुणिमा बिना टिकट के ट्रेवल कर रही थीं, इसलिए ट्रेन से कूद गईं। जब उनकी फैमिली ने इसका खंडन तो खबरें आईं कि अरुणिमा सुसाइड करना चाहती थीं, इसलिए ऐसा किया। हादसे को लेकर तरह-तरह की बातों ने एक बार तो अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ रही अरुणिमा का दिल तोड़ दिया। सिन्हा ने-द टेलीग्राफ- को बताया-मैंने आज तक टिकट सुरक्षित रखा है और मैं कोई कमजोर व्यक्ति नहीं हूं कि मैं आत्महत्या करने के बारे में सोचूं। जांच हुई और रेलवे को उसे मुआवजे के रूप में 5,00,000 रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया गया। खेल मंत्रालय ने भी मुआवजे की पेशकश की और आगे के इलाज के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया।

इलाज के दौरान डाक्टरों ने उसकी जान बचाने के लिए उसका बायां पांव काट दिया। डॉक्टरों का जोर इसी पर था कि उनकी कटी हुई टांग में इन्फेक्शन न फैले और घाव जल्द से जल्द भर जाएं। उन्हें नकली पैर लगाना पड़ा। अरुणिमा की रीढ़ की हड्डी में भी तीन फैक्चर पाए गए थे। उनके दाएं पैर की भी दो हड्डियां टूटी थीं जिन्हें ठीक करने के लिए कुछ दिन बाद ऑपरेशन किया।

एम्स में अरुणिमा चार महीने जिंदगी और मौत से लड़ती रही। उनका हौसला देखकर डॉ़ बड़े प्रभावित थे। जरूरत पड़ी तो उन्होंने आपना खून देकर भी अरुणिमा का इलाज किया। अंततोगत्वा इस जंग में अरुणिमा की जीत हुई पर अब उसका एक पैर कृत्रिम प्रोस्थेटिक था, तो दूसरे में लोहे की रॉड लगी हुई थी।

अरुणिमा अस्पताल में बेड पर थीं। तभी दादी आईं और बोली-बताओ अब इससे कौन शादी करेगा। परिवार और रिश्तेदारों की नजर में अरुणिमा कमजोर और विकलांग हो चुकी थी। डॉक्टर आराम करने की सलाह दे रहे थे। अरुणिमा के सपनीले संसार के सपने टूट चुके थे। कभी फुटबॉल के मैदान में तो कभी वॉलीबॉल के कोर्ट पर बिजली सा नजर आने वाला जिस्म व्हील चेयर पर सिमट चुका था। ये तय था कि बाकी पूरी जिंदगी अब कभी व्हील चेयर तो कभी बैसाखी के सहारे ही कटने वाली थी। ऐसी बातों से अवसाद जैसी स्थिति बन रही थी ।

अस्पताल से निकलकर सीधे एवरेस्ट पर चढ़ने की तैयारी

लेकिन अरुणिमा खुद को बेबस और लाचार नहीं देखना चाहती थी। मन में था कि अब इससे आगे बढ़ना है। कुछ ऐसा करना है जिससे अपनी पहचान बने। उनको महसूस होने लगा था कि कुछ ऐसा करना होगा, जिससे लोग उनकी तरफ दया से न देखें। अखबार में माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले लोगों के बारे में पढ़कर अपने भाई और कोच से अपनी इच्छा जताई। उन्होंने आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। क्रिकेटर युवराज सिंह के कैंसर को मात देने की कहानी से भी प्रेरणा मिली। इस प्रकार बिस्तर पर पड़े-पड़े उनका मकसद साफ हो चुका था कि जिंदगी को बोझ की तरह नहीं लेना है और अरुणिमा ने जिंदगी से हार न मानकर अपने नाम का परचम लहराने की ठानी। अस्पताल से बाहर निकलीं तो वे अपने साथ हुए हादसे को भूल चुकी थी और उसके पास एक बेहद कठिन और असंभव प्रतीत होने वाला लक्ष्य था।

चलने में असमर्थ अरुणिमा का लक्ष्य था विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को फतह करने का। अब तक कोई भी विकलांग ऐसा नहीं कर पाया था। जब दो सक्षम पैरों के साथ माउंट एवरेस्ट पर चढ़ना बेहद मुश्किल है, ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि कृत्रिम पैर के साथ यह कितना चुनौतीपूर्ण होगा। अपने निजी अनुभवों को साझा करते हुए डॉ. अरुणिमा ने कहा कि जब उनके आसपास सबको पता चला कि वह माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करना चाहती है तो सभी ने यही कहा कि यह पागल हो गई है। एक पैर है नहीं और दूसरे में रॉड पड़ी है। वह मर जाएगी। लेकिन अरुणिमा ने सबकी नहीं बल्कि अपने मन की सुनी।

अपने लक्ष्य की सीढ़ी चढ़ने के लिए उन्होंने एवरेस्ट पर चढऩे वाली पहली भारतीय महिला पर्वतारोही महिला बछेंद्री पाल से संपर्क किया । इलाज के तुरंत बाद एम्स से बाहर आते ही घर जाने के बजाय वह कटा हुआ बायां पैर, दाएं पैर की हड्डियों में पड़ी लोहे की छड़ और शरीर पर जख्मों के निशान के साथ सीधे उनसे मिलने जमशेदपुर जा पहुंचीं। उनके हौसले को देखकर बछेंद्री भी हैरत में पड़ गईं। अरुणिमा की हालत देखते हुए उन्होंने पहले तो उन्हें आराम करने की सलाह दी लेकिन उनके बुलंद हौसलों के आगे आखिर वे भी हार मान गईं। बछेंद्री पाल ने कहा, तुमने इतना बड़ा फैसला कर पहले ही अपने भीतर के एवरेस्ट पर विजय प्राप्त कर ली है। अब आपको दुनिया को यह करके दिखाना है। अरुणिमा ने बछेंद्री पॉल की निगरानी में नेपाल से लेकर लेह, लद्दाख में पर्वतारोहण के गुर सीखे। उत्तराखंड में नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग और टाटा स्टील ऑफ एडवेंचर फाउंडेशन से प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने ‘आईसलैंड पीक’ और ‘माउंट कांगड़ी’ पर चढ़ना-उतरना शुरू किया।

ऐसे साकार हुआ माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने का सपना

arunima sinha

arunima sinha

1 अप्रैल, 2013 को आखिर अरुणिमा अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण यात्रा-एवरेस्ट की चढ़ाई पर निकल पड़ी। हर मोड़ पर चुनौतियां थीं। माउंट एवरेस्ट चढ़ते समय अरुणिमा को अपने बाकी साथियों की रफ्तार से मैच करने में मुश्किल होती। वह अक्सर रास्ते में पीछे छूट जाया करती थीं। एवरेस्ट के टेढ़े-मेढ़े रास्ते और अरुणिमा के पास एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए रस्सी की सीढ़ी भी नहीं थी। ऐसे में, रास्ते की इन बाधाओं को पार करने के लिए उन्हें कूदना पड़ता था। वैसे तो पहाड़ में एक अच्छे भले इंसान को कूदने में भी नानी याद आ जाती है, तो सोचिये जरा, अरुणिमा के लिए अपने कृत्रिम पैर के साथ कूदना कितना मुश्किल होता होगा। एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने से पहले उनका प्रोस्थेटिक पैर शरीर से अलग हो गया। ऑक्सीजन खत्म हो गई। जब गिरते-पड़ते शरीर ने जवाब दे दिया तो उनके गाइड ने वापस जाने तक की सलाह दे डाली। बावजूद इसके अरुणिमा ने अपने हौसले पस्त नहीं कर यात्रा जारी रखी। आखिर अरुणिमा के संकल्प की जीत हुई। आखिरकार, साल 2013 में 52 दिनों का सफर तय करने के बाद 21 मई 2013 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट (29028 फीट ) पर तिरंगा फहरा दिया। इसी के साथ अरुणिमा सिन्हा देश की पहली दिव्यांग बेटी बन गई जिसने एवरेस्ट को फतह किया।

पा ली मंजिल

arunima sinha at the hillery steps mount everest

arunima sinha at the hillery steps mount everest

दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर जब अरुणिमा के कदम पड़े तो उन पलों पर उन्हें यकीन ही नहीं हो पा रहा था। हाथों में तिरंगा लेकर कामयाबी के आसमान पर अरुणिमा सिन्हा खड़ीं थीं। सफेद बर्फ से ढकी पहाड़ियों और साफ नीले आसमान के बीच अरुणिमा परिंदे की मानिंद आजादी महसूस कर रही थीं। आजादी उन सहानुभूतियों से थी…आजादी उस कमजोरी से थी….आजादी उस घुटन से थी जिसके चलते उन्हें लोग दिव्यांग की नजर से देखा करते थे। एवरेस्ट की ऊंचाई पर पहुंच कर अरुणिमा ने अपनी तकलीफों के पहाड़ को हमेशा के लिये छोटा कर दिया।

शिखर की उस चोटी पर पहुंचकर उन्होंने अपने सपने को जीया। अरुणिमा ने बताया “मैंने जब एवरेस्ट पर फतह किया तो मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर जोर से चिल्लाना चाहती थी और उन सभी लोगों को यह कहना चाहती थी कि देखो मैंने कर दिखाया। उन सभी लोगों को, जिन्होंने मुझे पागल कहा, विकलांग कहा और यह भी कहा कि एक औरत होकर मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगी। मैं अपने आलोचकों की सबसे ज्यादा शुक्रगुजार हूं। उन्हीं की वजह से मुझे मेरे लक्ष्य को हासिल करने का जुनून मिला और आखिरकार मैंने वो कर दिखाया।”

पद्मश्री, डॉ. अरुणिमा सिन्हा

arunima sinha and her husband

arunima sinha and her husband

अरुणिमा सिन्हा की शादी जून 2018 में पैरा ओलंपिक खेलों में शानदार प्रदर्शन करने वाले शूटर गौरव सिंह के साथ हुई।

उसके बाद तो जैसे जिन्दगी ही बदल गई। अरुणिमा के कदमों पर कामयाबी के आसमान पर थे। उत्तर प्रदेश में सुल्तानपुर जिले की भारत भारती संस्था ने उन्हें सुल्तानपुर रत्न और अम्बेडकरनगर महोत्सव समिति ने अम्बेडकर नगर रत्न अवॉर्ड से नवाजा । तेनजिंग नोर्गे सर्वोच्च पर्वतारोहण पुरस्कार, अर्जुन पुरस्कार, पद्मश्री- 2015, प्रथम महिला पुरस्कार, पीपल ऑफ द ईयर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल होने का गोरव मिला। अरुणिमा की उपलब्धियों के लिए नवंबर 2018 को ब्रिटेन के स्ट्रेथक्लाइड विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। अरुणिमा ने अपने संस्मरण ‘पहाड़ पर फिर से जन्म: सब कुछ खोकर वापस पाने की कहानी’ पुस्तक लिखी है। इसको प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लॉन्च किया था।

मंजिल पा कर भी नहीं रुकी अरुणिमा

arunima sinha mar 15 2019

arunima sinha mar 15 2019

युवाओं और जीवन में किसी भी प्रकार के अभाव के चलते निराशापूर्ण जीवन जी रहे लोगों में प्रेरणा और उत्साह जगाने के लिए उन्होंने दुनिया के सभी सातों महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटियों को लांघने का लक्ष्य तय किया।

अब तक वे दुनिया के सातों महाद्वीपों की सबसे ऊँची चोटियों- अफ्रीका की माउंट किलिमंजारो, रूस के माउंट एल्ब्रस, यूरोप में एल्प्स, ऑस्ट्रेलिया में माउंट कोसियसको, दक्षिण अमेरिका में अर्जेंटीना के माउंट अकंकागुआ, इंडोनेशिया के कार्सटेन्स्ज पिरामिड और अंटार्कटिका की सबसे ऊंची चोटी माउंट विंसन पर तिरंगा लहरा चुकी हैं। माउंट विंसन पर चढ़ने वाली वे दुनिया की पहली विकलांग महिला हैं।

अरुणिमा ने केवल पर्वतारोहण ही नहीं, आर्टीफीशियल ब्लेड रनिंग में भी अपनी धाक जमाई। चेन्नै में हुए ओपन नेशनल गेम्स (पैरा) में उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता। दुर्घटना के बाद मिले पैसों से अरुणिमा ने उन्नाव के बेथर गांव में कुछ जमीन खरीदी और वहां विकलांगों के लिए शहीद चंद्रशेखर आजाद खेल अकादमी और प्रोस्थेटिक लिंब रिसर्च सेंटर के रूप में अपने सपने को आकार देने में भी जुटी हैं।

अरुणिमा ने साबित कर दिया कि अगर इंसान सच्चे दिल से चाहे तो क्या कुछ नहीं कर सकता। इंसान शरीर से विकलांग नहीं होता बल्कि मानसिकता से विकलांग होता है। किसी ने कहा है “मंजिल मिल ही जाएगी भटकते हुए ही सही, गुमराह तो वो हैं जो घर से निकले ही नहीं।

 

Related posts
इंटरेस्टिंगबी हैप्पीमोटिवेशनसक्सेस स्टोरीस्टोरी4यू

निक वुजिसिस: जन्म से ही हाथ-पैर नहीं पर गोल्फ व फुटबॉल खेलते, तैरते और करते हैं-स्काइडाइविंग, सर्फिंग

जिंदगी कई बार आपके सामने ऐसी मुश्किलें खड़ी कर देती है जिसके सामने आप हार मान जाते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते है जो मुश्किलों के सामने डट कर खड़े हो जाते हैं। आज हम ऐसे इंसान की बात कर रहे हैं, जिसने बिना हाथ-पैर के जन्म लिया…
यह भी जानें

सावधान! सर्विस सेंटर पर फोन देने से पहले जरूर करें ये काम, नहीं तो होगा बड़ा नुकसान

आमतौर पर मोबाइल टूट जाए या खराब हो जाए या उसमें छोटी-छोटी दिक्कतें आने लगती है, तो हम जल्दबाज़ी में इसे सर्विस सेंटर पर दे देते हैं। कई बार तो सर्विस सेंटर आपके सामने ही इन्‍हें ठीक कर वापिस कर देते हैं लेकिन ज्‍यादातर ऐसा होता है कि आपको अपना…
करियर प्लस

महिलाओं के लिए मुश्किल नहीं करियर की दूसरी पारी शुरू करना

लड़कियां चाहे कितनी ही शिक्षित और आधुनिक क्यों न हों, वे अपनी घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकतीं। इसलिए ज्यादातर कामकाजी युवतियों के जीवन में एक ऐसा दौर जरूर आता है, जब उन्हें बीच में ही नौकरी छोड़ने की जरूरत महसूस होती है। अपनी सेहत, बच्चे की देखभाल,…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *