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ट्रम्प के रवैए से लोकतंत्र को झटका, मजबूत होंगी विस्तारवादी ताकतें

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राजेश जैन

अमेरिका चाहता है कि यूक्रेन या तो अपनी आधी खनिज संपदा उसे देने का सौदा करे या अपनी जमीन का करीब पांचवां भाग छोड़ दे, वहीं ‘नाटो’ का सदस्य बनने या किसी दूसरी तरह की सुरक्षा गारंटी हासिल करने की बात तो भूल ही जाए। फरवरी के अंतिम दिन अमेरिका दौरे के दौरान इससे इंकार पर यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की को व्हाइट हाउस से निकाल दिया गया। ट्रम्प ने कहा कि जेलेंस्की बातचीत की हालत में नहीं हैं। जेलेंस्की ने फिर से डोनाल्ड ट्रम्प के साथ बातचीत करने की इच्छा जाहिर की, लेकिन उन्हें मौका नहीं दिया गया।
ट्रंप ने इससे पहले कनाडा को अमेरिका का 51वां सूबा बनाने की बात कही थी। ग्रीनलैंड को खरीदने और गाजा को फलस्तीनियों से खाली करवाने की बात भी वे कह चुके हैं। यूरोप को वे यह कहकर रोने पर मजबूर कर रहे हैं कि उन्हें बे-लगाम पुतिन का सामना अपने ही बूते करना पड़ेगा। अब सवाल यह नहीं है कि ट्रम्प इन धमकियों पर अमल करेंगे या नहीं। मुद्दे की बात यह है कि कोई भी संप्रभुता-संपन्न देश ऐसी धमकियों को महज लफ्फाजी मानकर खारिज नहीं कर सकता। यहां भरोसा तोड़ा गया है। अगर ट्रम्प ‘सुरक्षा शुल्क’, खनिज या जमीन की मांग कर सकते हैं तो आगे यह भी मांग की जा सकती है कि हमारे गुलाम बन जाओ या चीन या रूस के रहम पर रहो। हो सकता है ट्रम्प ग्रीनलैंड ले जाएं, शी जिनपिंग ताइवान ले उड़ें और पुतिन बाल्टिक्स का कुछ हिस्सा दबोच लें।

पहले भी करते रहे नीति और सिद्धांतों की अनदेखी

इससे पहले भी डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने कई बार अंतरराष्ट्रीय नियमों और कूटनीतिक परंपराओं की अनदेखी की है। चाहे वह जलवायु समझौते से बाहर होना हो, विश्व स्वास्थ्य संगठन की फंडिंग रोकना हो, या फिर ईरान के साथ परमाणु समझौते को तोड़ना—इन सभी फैसलों में शक्ति प्रदर्शन और आत्मकेंद्रित नीतियों की झलक साफ दिखाई दी। ट्रम्प का रवैया बताता है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता और मूल्यों की जगह सैन्य और आर्थिक शक्ति को प्राथमिकता दी जा रही है। यह स्थिति उस कहावत को चरितार्थ करती है—”जिसके पास लाठी, उसकी भैंस।”

कमजोर पड़ी लोकतंत्र की लड़ाई

अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर नजर रखने वाले जानते हैं कि जब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन थे, तब यूक्रेन को अमेरिका और यूरोपीय देशों की ओर से दी जा रही मदद लोकतंत्र को बचाने की जंग थी। उन्हें अहसास था कि अगर पुतिन की मनमानी को नहीं रोका तो वह विस्तारवादी नीतियों पर आगे बढ़ते रहेंगे। आपको बता दें कि पुतिन के बारे में माना जाता रहा है कि वे सोवियत संघ के दौर के साम्राज्यवाद को फिर से स्थापित करना चाहते हैं। पोलैंड, स्लोवाकिया, लातविया, एस्टोनिया और मोल्दोवा पुतिन के निशाने पर हैं।
उन्होंने 2014 में यूक्रेन से क्रीमिया छीना था। 2022 के बाद युद्ध में भी पुतिन यूक्रेन के कई क्षेत्रों पर कब्जा करने में कामयाब रहे हैं। यूक्रेन के सहयोगी यूरोपीय देश चाहते हैं कि युद्ध पुतिन की शर्तों पर खत्म नहीं करना चाहिए। युद्ध खत्म करवाने की एवज में रूसी राष्ट्रपति से भी रियायतें हासिल करनी चाहिए। ट्रम्प से मिलने के बाद जेलेंस्की ने भी कहा कि यूक्रेन तब तक रूस के साथ पीस डील में शामिल नहीं होगा जब तक कि उसे सुरक्षा की पूरी गारंटी नहीं मिल जाती।

दुनिया में अराजकता की आशंका

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में जिस प्रकार ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति के तहत मनमानी और शक्ति प्रदर्शन को प्राथमिकता दी गई, उसने वैश्विक संतुलन को गहराई से प्रभावित किया है। उनकी विदेश नीति, व्यापार समझौतों से लेकर सैन्य हस्तक्षेप तक, एक ही संदेश देती है— “जिसके पास शक्ति है, वही नियम तय करेगा।” यह दृष्टिकोण न केवल अमेरिका की वैश्विक छवि को बदल रहा है, बल्कि अन्य महाशक्तियों को भी इसी राह पर चलने के लिए प्रेरित कर रहा है, जिससे दुनिया में अराजकता की आशंका बढ़ रही है। हो सकता है चीन ताइवान को अपने में मिलाने के लिए जंग छेड़ दे। हाल ही में शी चिनफिंग ने कहा भी है कि ताइवान मसले को वह आने वाली पीढ़ियों की खातिर नहीं छोड़ना चाहते यानी वह अपने कार्यकाल में उसका विलय चीन में करना चाहते हैं।

हो सकती है सुरक्षा गारंटियों की समीक्षा

आपको बता दें कि 1994 में यूक्रेन ने रूस, यूरोप और अमेरिका से सुरक्षा की गारंटी मिलने के बाद परमाणु हथियारों के अपने भंडार को त्याग दिया था। आज यूक्रेन के हालत देखकर अब कौन ऐसे शांति प्रस्तावों पर भरोसा करने का साहस करेगा। ट्रम्प साफ़ कह रहे हैं कि किसी की भी सुरक्षा अमेरिका का सिरदर्द नहीं है। ऐसे में क्या होगा जब ट्रम्प जापान से कहेंगे कि मुझे ओकिनावा दे दो या ऑस्ट्रेलिया से कहें कि अमेरिका से सुरक्षा गारंटी की कीमत के रूप में अपने खनिज संसाधन का पांचवां हिस्सा हमें दे दो। ऐसी ही आशंकाओं को देखते हुए यूरोप के अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अमेरिका के सभी मित्र देश उससे मिल रही सुरक्षा गारंटियों की समीक्षा कर सकते हैं।

ट्रम्प ने परमाणु अप्रसार के विचार की हत्या कर दी है। परमाणु हथियार फिर से युद्ध-प्रतिरोधक बन गए हैं। आज उत्तरी कोरिया के किम जोंग उन यूक्रेन और यूरोप की हालत पर हंस रहे होंगे और सोच रहे होंगे कि अगर उन्होंने अमेरिकी अतिक्रमण के जवाब में दक्षिण कोरिया या जापान पर परमाणु हमला करने की चेतावनी न दी होती तो क्या अमेरिका उन्हें सलामत रहने देता? ईरान इस सब पर नजर रखे हुए है। अगर पाकिस्तान उन्हें बना सकता है तो कोई भी बना सकता है। मध्य-पूर्व में ईरान, सऊदी अरब और क्या पता दक्षिण अफ्रीका, तुर्किये, अजरबैजान और मिस्र भी आज के हालत में इनके बारे में सोच रहे हों।

हमें आभारी रहना चाहिए अपने नेताओं की दूरदर्शिता के किए

कभी परमाणु अप्रसार की पक्षधर अमेरिकी लॉबी भारत पर दबाव बना रही थी कि वह परमाणु हथियार न बनाए। अमेरिका से कई उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भारत आए, यह समझाने के लिए कि हम व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि पर दस्तखत कर दे। दबाव का यह सिलसिला नेहरू से लेकर तब तक चला, जब तक कि इंदिरा गांधी ने 1974 में परमाणु परीक्षण और इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पोखरण-2 करके इसे खत्म नहीं कर दिया। हमारे देश में भी शांतिवादियों ने वैचारिक या नैतिक आधार परमाणु बम बनाने पर विरोध किया था। तब हमारे नेता अडिग रहे। शायद इसके पीछे उनकी यह दूरदर्शिता थी कि एक दिन ऐसा आएगा जब सुरक्षा की कोई गारंटी काम नहीं आएगी।

समाधान और संतुलन की दरकार

यदि वैश्विक राजनीति में शक्ति और स्वार्थ को ही नीति बनाने की प्रवृत्ति बढ़ती रही, तो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में अस्थिरता और अराजकता का खतरा और बढ़ेगा। संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं पहले से ही कमजोर पड़ रही हैं और यदि बड़े देश अपनी मनमानी पर उतर आए, तो छोटे और विकासशील देशों के लिए संकट उत्पन्न हो जाएगा। इसके अलावा, यदि महाशक्तियां अपने आर्थिक और सैन्य बल के आधार पर नीतियां लागू करेंगी, तो वैश्विक शांति खतरे में पड़ सकती है और नए संघर्षों की संभावना बढ़ सकती है। इस चुनौतीपूर्ण समय में संतुलन और नैतिकता आधारित कूटनीति की जरूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है।

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